देहरादून। चुनावी साल में भाजपा अपने ही प्रयोगों में फंसी नजर आ रही है। तीन महीनों के भीतर भाजपा ने प्रदेश को तीन मुख्यमंत्री दे दिए और अब पार्टी का कहना है कि वह किसी चेहरे की बजाय कमल के निशान को ही आगे करके चुनाव लड़ेगी। मतलब साफ है कि मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी पार्टी का चेहरा नहीं होंगे। यदि धामी चेहरा नहीं हैं तो फिर उन्हें चुनाव से छह महीने पहले मुख्यमंत्री बनाने का औचित्य क्या है? धामी एक युवा विधायक है और पद संभालने के बाद से ही वह काफी ईमानदारी से काम कर रहे हैं। यह बात सही है कि उनके चेहरे पर भाजपा को वोट नहीं मिल सकते, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की तरह उनकी वजह से वोट छिटकेंगे भी नहीं। धामी को जितना कम समय मिला है, उसमें अगर वह भाजपा के वोट बैंक को एकजुट रखने और कुछ नाराज वर्गों खासकर ब्राह्मणों की नाराजगी दूर करने में सफल रहते हैं तो यह बड़ी उपलब्धि होगी और यह भाजपा की नैया पार लगाने में सफल रहेगी। धामी को चेहरा न बनाना भाजपा की रणनीतिक भूल हो सकती है। यह भी तय है कि इस बार अकेले प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर भी भाजपा को वोट नहीं मिलेंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि मोदी की लोकप्रियता कम हुई है, मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं है, लेकिन लोग उन्हें लोकसभा चुनाव में ही वोट देंगे। राज्य की सरकार चुनते समय वे भाजपा सरकार के पिछले पांच साल के कामकाज को ही देखेंगे।
पिछले पांच सालों में चार साल त्रिवेंद्र सिह रावत ने शासन किया। लेकिन उनकी उपलब्धियां कम और नाकामियां अधिक रहीं। उन पर जातीय मानसिकता से भी काम करने के आरोप लगे। चारधाम देवस्थानम बोर्ड का गठन उनका एक ऐसा फैसला रहा, जिसने ब्राह्मणों को नाराज कर दिया। यही नहीं विभिन्न प्रमुख पदों पर नियुक्ति को लेकर उन्होंने जिस तरह से एक खास वर्ग को ही प्राथमिकता दी, उससे भी बाकी वर्ग उनसे नाराज हो गए। नियुक्तियों में पैसे लेने और भाई भतीजावाद की वजह से प्रदेश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुंच गया। हालांकि उनके बाद मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत भी भ्रष्टाचार पर काबू नहीं कर सके। तीन माह बाद ही तीरथ की विदाई से साफ हो गया कि वे भाजपा की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके। हालांकि उन्हांेने त्रिवेंद्र सिंह रावत के कुछ फैसलों को बदल कर यह संकेत जरूर दिया था कि वह साहसिक फैसले लेने की हिम्मद रखते हैं। उनके कुछ बयान और भाषणों में हड़बड़ी की वजह से गलत तथ्य पेश किए जाने से सरकार का उपहास जरूर बना था।
धामी को मुख्यमंत्री बनाने का भाजपा का फैसला चौंकाने वाला था, क्योंकि वह सिर्फ दो बार के विधायक थे और प्रदेश सरकार में पहले कभी किसी पद पर नहीं रहे थे। जूनियर होने की वजह से तमाम सीनियर विधायक और मंत्री शपथ ग्रहण से पहले ही खुलकर उनके विरोध में आ गए थे। बाद में अमित शाह के दखल पर असंतोष ऊपरी तौर पर तो शांत हो गया, लेकिन भाजपा द्वारा धामी को चेहरा न बनाने के संकेत से साफ है कि आग अभी बुझी नहीं है। कांग्रेस से अाए नेताओं को प्रमुख कमेटियों में स्थान देना भी भाजपा की ओर से डैमेज कंट्रोल की कोशिश का हिस्सा है।
उत्तराखंड की राजनीति को करीब से जानने वालों को पता है कि यहां पर राजनीतिक साजिशें कभी थमती नहीं हैं। 2012 में भाजपा ने तात्कालिक मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी को सीएम का चेहरा बनाया था, लेकिन वह खुद ही विधानसभा का चुनाव हार गए थे। खंडूरी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनकी हार के पीछे पार्टी के एक पूर्व पूर्व सीएम का हाथ था। ऐसे ही भितरघात की वजह से 2012 में भाजपा बहुत ही मामूली अंतर से सत्ता से दूर रह गई थी। इस बार पार्टी के सामने दोहरी चुनौती है, क्योंकि कांग्रेस के अलावा आप भी सत्ता की दौड़ में आ गई है और उसके निशाने पर भी भाजपा ही है। बेहतर होता की भाजपा चेहरे को सामने लाकर चुनाव लड़ती। सवाल यही है कि धामी नहीं तौ कौन?