देहरादून। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का चुनाव न लड़ने का फैसला चौंकाने वाला लगता जरूर है, लेकिन असल में डोईवाला में उनकी हार तय थी, इसीलिए वह मैदान छोड़कर भाग गए। त्रिवेंद्र का चुनाव से भागना भाजपा के लिए भी अच्छा संकेत नहीं है। चार साल तक प्रदेश की बागडोर संभालने वाला नेता ही अगर चुनाव से डर रहा हो तो साफ है कि बाकी इलाकों में क्या हाल होगा? हालांकि त्रिवेंद्र का दंभी स्वभाव ही उनके खिलाफ जा रहा है। सरकार के मुखिया के रूप में उन्होंने जमकर मनमानी की और किसी भी सहयोगी की सलाह नहीं मानी। प्रधानमंत्री मोदी की तर्ज पर वह सिर्फ शीर्ष से ही शासन चलाना चाहते थे, लेकिन मोदी की व्यक्तिगत छवि और कार्यकुशलता शायद उन्हें नजर नहीं अाई। केंद्र सरकार मेंं फैसले चाहे शीर्ष से ही क्यों न होते हों, लेकिन गडकरी जैसे मंत्रियों को काम करने की पूरी छूट है।
त्रिवेंद्र के पलायन करने से साफ हो गया है कि भाजपा के चार साल के शासन में कुछ भी अच्छा नहीं हुआ। जब मुख्यमंत्री रहा व्यक्ति अपने क्षेत्र में ही ऐसा काम नहीं करा सका कि चुनाव में उसकी जीत की गारंटी हो तो बाकी हलकों में क्या हुआ होगा यह आसानी से समझ में आता है। त्रिवेंद्र की जातिवादी मानसिकता ने भी उनके खिलाफ माहौल बनाने में मदद की। उनके चारों ओर जमा एक खास वर्ग के चाटुकारों का आज कोई पता नहीं है। जिन हरख सिंह रावत को त्रिवेंद्र ने अपने कार्यकाल में कोई तवज्जों नहीं दी अब उनसे डरकार भागना बताता है कि त्रिवेंद्र को भाजपा में आनन-फानन में क्यों हटाया। यही नहीं, अभी तक हरख को किसी पार्टी में एंट्री भी नहीं मिली है और उन्होंने त्रिवेंद्र के पांव उखाड़ दिए, इससे पता चलता है कि तमाम कमियों के बावजूद हरख का जनसर्मथन त्रिवेंद्र से अधिक है। त्रिवेंद्र का यह फैसला कहीं उनकी राजनीतिक पारी का अंत तो नहीं कर देगा या फिर त्रिवेंद्र को ऐसा लगता है कि इस चुनाव में भाजपा की संभावना कमजोर है, इसलिए अगली बार पूरी ताकत से मुकाबले में उतरा जाए। लेकिन, पलायनवादी नेता को भविष्य में भाजपा और जनता कितना महत्व देगी, यह देखना दिलचस्प होगा।